२७ मार्च, १९५७

 

 जहां कहीं तू महान् अंत देखे निश्चित समझ ले कि महान् प्रारंभ होनेवाला है । जहां कोई डरावना और दुःखदायी विनाश तेरे दिलको दहलाता हो, उसे यह विश्वास दिलाकर सांत्वना दे कि

 

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एक विशाल और महान् सृजन होनेवाला है । परमेश्वर केवल छोटी धीमी आवाजमें ही नहीं, बल्कि आग और तूफानमें भी है ।

 

 विनाश जितना ही बड़ा होगा सुजनके उतने ही खुले अवसर होंगे । परंतु विनाश प्रायः ही लंबा, धीमा और असह्य होता है, सृजन आनेमें देरी करता है या उसकी विजयमें बार-बार विघ्न पड़ते हैं । रात फिर-फिर लौट आती है और दिन देर लगाता है या झूठी उषाकी प्रतीति होती है । इससे निराश न हो ध्यानसे देखता जा और काम करता जा । जो तीव्र आशा रखते हैं वही जल्दी निराश होते हैं । न आशा रख और न भय, परंतु परमेश्वरके प्रयोजन और अपने संकल्पकी विजयमें निश्चयपूर्ण विश्वास रख ।

 

 दिव्य 'कलाकार' का हाथ बहुत बार ऐसे काम करता है मानों बह अपनी प्रतिभा और सामग्रीके बारेमें अनिश्चित हों । ऐसा लगता है वह छूता, परखता और छोड़ देता है, उठाता, फेंक देता और फिरसे उठा लेता है, परिश्रम करता, असफल होता, कच्चा काम करता और उधेड़ता और बुनता रहता है । जब- तक सभी चीजों तैयार न हो जायं तबतक उसके काममें आश्चर्य और निराशाका क्रम रहता है । जिसे चूना था उसे निन्दाके रसातलमें फेंक दिया जाता है; जिसे त्याग दिया था वह भव्य प्रासादका आधार बन जाता है । पर इस सबके पीछे एक सुनिश्चित ज्ञान-दृष्टि है, -- जिसका पार हमारी बुद्धि नहीं पा सकती -- और है असीम सामर्थ्यकी मंद मुस्कान ।

 

परमेश्वरके सामने संपूर्ण काल पड़ा है और उसे हमेशा जल्दीमें रहनेकी जरूरत नहीं । बह अपने उद्देश्य और सफलताके बारेमें सुनिश्चित है और यदि अपने कामको पूर्णताके नजदीक लानेके लिये उसे सौ बार भी तोड़ना पड़े तो बह उसकी परवाह नहीं करता । धैर्य हमारा सबसे पहला महान् आवश्यक पाठ है, पर बह अलस मंदता नहीं जो भीरू, संशयात्मा, क्लांत, आलसी, निराकांक्ष या दुर्बल ब्यक्तिमें क्रिया-प्रवृत्तिके प्रति होती है; ऐसा धैर्य जो शांत और वृद्धिशील बलसे भरपूर है, जो जागरूक होकर देखता और अपनेको तीव्र प्रहारोंकी घडीके

 

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लिये तैयार करता है जो प्रहार थोड़े होते हुए भी भाग्यको पलट देनेके लिये पर्याप्त होते हैं ।

 

किसलिये परमेश्वर अपने संसारपर ऐसी उग्रतासे हथौड़े बरसाता है, उसे रौंदता और आटेकी तरह गूंधता है, इतनी अधिक बार रक्त-स्नान कराता और भट्टीकी लाल नरकाग्निमें झोंकता है? क्योंकि जन-साधारणमें मानवता अब भी एक कठोर, असंस्कृत और मलिन कच्ची धातुके रूपमें है जो किसी और तरह गलायी और ढाली नहीं जा सकती; जैसी उसकी सामग्री है, वैसी ही उसकी कार्य-प्रणाली । यदि यह अपनेको अधिक बढ़िया और शुद्ध धातुके रूपमें बदलनेके लिये तैयार हो जाय तो इसके साथ बरतनेके उसके तरीके भी अधिक कोमल और मधुर हो जायेंगे और इसका उपयोग भी अधिक उच्च एवं सुन्दर होगा ।

 

 किसलिये उसने ऐसी सामग्रीको चूना था बनाया जब कि चुननेके लिये उसके सामने समस्त असीम संभावना मौजूद थो? क्योंकि उसकी दिव्य 'कल्पना' ही ऐसी थी, उस कल्पनाने न केवल सुन्दरता, मधुरता और पवित्रताको ही अपनी आंखोंके आगे रखा बल्कि शक्ति, संकल्प और महानताको भी देखा । शक्तिका तिरस्कार मत कर और ना ही इसकी कुछ आकृतियोंकी कुरूपताके कारण इससे घृणा कर, यह भी न सोच कि केवल प्रेम ही परमेश्वर है । संपूर्ण पूर्णतामें कुछ अंश वीरताका, बल्कि दानवताका भी होना चाहिये । परंतु बडे-से-बडे शक्ति पैदा होती है बडे-से-बडे कठिनाईमेसे ।

(विचार और झांकियां)

 

आखिर सारी समस्या यह जानने की है कि मानवता शुद्ध सोनेकी अवस्थामें पहुंच गयी है या अब भी इसे मूषा या कुठालीमें परखनेकी जरूरत है।

   

       एक चीज स्पष्ट है कि मानवता अभीतक शुद्ध सोना नहीं बनी है, यह साफ ही दिखता है और निश्चित है ।

 

       परन्तु संसारके इतिहासमें कुछ ऐसी बात हो गयी है जो यह आशा बंधाती है कि मानवतामें कुछ गिने-चुने, थोड़े-से व्यक्ति शुद्ध सोनेमें बदलने- के लिये तैयार है और ये बिना हिंसाके शक्तिको, बिना विनाशके वीरताको और बिना विध्वंसके साहसको अभिव्यक्त कर सकेंगे ।

 

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       ठीक अगले ही परिच्छेदमें श्रीअरविंद इसका उत्तर देते हैं : ''यदि मनुष्य एक बार आध्यात्मिक होनेके लिये सहमत हो सकें ।'' यदि व्यक्ति आध्यात्मिक' होनेके लिये बस, सहमत हो जाय... सहमत हो जाय ।'

 

       इसके अंदरकी कोई चीज इसे चाहती है, इसके लिये अभीप्सा करती है, परन्तु बाकी सारी सत्ता इंकार करती है, वह-की-वही बनी रहना चाहती है : एक' मिश्रित धातु, जिसे भट्टीमें डालनेकी जरूरत है ।

 

       हम इस समय फिर एक बार पृथ्वीके इतिहासमें एक निर्णायक मोडपर हैं । सब ओरसे लोग मुझसे पूछ रहे हैं : ''अब क्या होनेवाला है? '' हर जगह तीव्र व्यथा, प्रतीक्षा, भयकी स्थिति है । ''अब क्या होनेवाला है? '' ... इसका उत्तर, बस, एक ही है : ''यदि मानवता आध्यात्मिक होनेके लिये बस, तैयार हो जाय ।''

 

        शायद इतना पर्याप्त हो कि कुछ व्यक्ति शुद्ध सोना बन जायं, क्योंकि यह उदाहरण घटनाचक्रको बदलनेके लिये काफी होगा... यह आवश्यकता बहुत प्रबल रूपमें हमारे सामने है ।

 

          वह साहस और वह वीरता, जिसकी भगवान् हमसे अपेशा रखते है, उसका उपयोग हम अपनी कठिनाइयों, अपूर्णताओं और मलिनताओंके विरुद्ध लडनेमें क्यों न करें? हम आंतरिक शुद्धिकी भट्टीका सामना वीरतापूर्वक क्यों न करें ताकि फिर एक बार उस भयानक और आसुरिक विनद्वामेंसे गुजरनेकी आवश्यकता ही न पड़े जो सारी सम्यताको अंधकारमें डूब देगा ।

 

            यही समस्या आज हमारे सामने है । हममेंसे प्रत्येकको इसे अपने ढंगसे हल करना है ।

 

            इस समय मैं उन प्रश्नोंका उत्तर दे रही हू जो मुझसे पूछे गये है और मेरा उत्तर वही है जो श्रीअरविंदका है :

 

           यदि मनुष्य एक बार आध्यात्मिक होनेके लिये सहमत हो सके... और इसके साथ मैं एक बात और जोड़ती हू : समय दबाव डाल रहा है... मानवीय दृष्टिकोणसे ।

 

           '''सब कुछ बदल जाय यदि मनुष्य एक बार आध्यात्मिक होनेके लिये सहमत हो सकें; परन्तु उसकी मानसिक, प्राणिक और भौतिक प्रकृति उच्च- तर विधानके प्रति विद्रोह करती है । वह अपनी अपूर्णताओं\से प्यार करता ह ।

 

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